बहुत द्वंद और एक बोझ जैसे पर्वतों की श्रृंखला, और रेगिस्तान सी राह में दूर जाता एक राही;
विस्तृत अथाह सी राह में कभी इतना पीछे रह जाता; की चलना मुश्किल सा प्रतीत लगता !
कब तस्सली हो, भागते भागते ! कितने सवाल है ….. फैसलों पर ..
क्योँ ऐसा लगता मौसम बेजार हो इर्द गिर्द पसरा हो __ रात की अधखुली पलकों ने कितने लम्हों को समेटा होगा,
जिस्म थकता हुआ ..सुबह की तलाश में ! उठने को बेताब …चलने को बेताब – राह कैसी भी कब सोचता !
समय के थपेड़े बरबस टकराते और कहते तोड़ क्योँ नही देते खामोशी ..
क्योँ लहरों को जाते देखते की वो आ ही जाती फिर वापस !
पर जाना तो उसकी आदत .. कुछ देर वहीँ इन्हीं क्रम की पुनराविर्ती ….
SK IN Night & Pen
khoobsurat