कुछ टूटे हुए काँच खिड़कियों के,
जैसे सर्द हवाओं ने रुख देखा उसमें !
आधे ऊँघे परे पेड़ कुछ दुरी पर,
और साथ उसके आसरे अंदर खोये हुए,
लिपटी चुपचाप सी रोशनी लेम्पपोस्टों की !
एक नींद आधी सवालों वाली टूट सी गयी,
कितना पहर था नजाने दूसरी नींद के वास्ते !
सिरहाने परे ख्वाबों से जी नहीं था भरा,
फिर जी चाहा रूबरू हो तुमसे एकबारगी !
पौ फट जाये बिखर जाये हर चाहत,
फिर खों जाये कहीं दूसरी नींद की आगोश में !
#SK
Image Source : http://www.michawertheim.nl/agenda/35305/
दूसरी नींद की आगोश में
yes jb kbhi neend khul jaati aur hum kya sochte ye poem kuch aisa hi hai !