गिरह ऐसी भी नहीं थी की टूट जाती, हाँ कुछ बन्धन जो वक्त, मायूसी, खामोशी के थे ..सब आजाद है अब ! मैं इस इल्जाम का इतना भी हक़दार नहीं हूँ, ना तुम किसी खता के अपराधी ; बस ये ऐसे ही था जिंदगी का फलसफां .. मैं लिखता भी रहा और मिटाता भी रहा ! कभी जो बयाँ था सब .. अब दफ्न है राज बनकर !
पहल मैं कैसे करता ; जकड़ सा रखा था खुद को किसी अहं में ; वो जायज़ कितना , कितना सही मालूम नहीं था ! हाँ बेबस भी था की कैसे खुद को फिर उसी राह पर ले आता ; फासले पर जाने का फैसला भी था ; और कहीं जा भी नहीं सके ! यही इर्द गिर्द ख़ामोशी जो दोनों तरफ थी उसी में खोये हुए ; हर दिन को बीतते देखना ! सूरज को ऊपर चढ़ते हुए और शाम को थक के उतरते हुए ; ऐसे ही तो हँसी भी एक दिन चेहरे से चढ़ के उतर सी गयी थी ! पूछने पर अनसुना करके …
बोझ था एक रोज उतारने को जी चाहता था ; पर किस बात का प्रायश्चित किया जा सकता, उस बात का जो महसूस ही ना हो ! लगा था गिरहें ऐसी ही बनी रहेगी तो ; शायद कभी कोई कोशिश नहीं होगी जिंदगी में उलझते गिरहों को सुलझाने की ! कोई अपना अजनबी … कोई अजनबी अपना ये अब कभी कोई नहीं कह पायेगा !
घुटते साँस को एक हवा मिल गयी थी उस दिन ; सूखे रेगिस्तान पर मेघ का घिरना ही तो जिंदगी भर देता ; बस उस दिन ऐसा था कुछ ! झिरक कर कहे शब्दों से तुमने चुन लिया था मर्म वो गुस्सा ; वो बीता वक़्त ; वो इन्तेजार ; वो शीतलता ; और इस तरह धीरे धीरे ढीली पर गयी हर गिरह !
खुले आसमान में परिंदे की उड़ान की तरह; टूट गयी हर शिकवे की गिरह !!
“हर गिरह खोल दी तुमने आके,
मेरी हँसी मुक़्क़मल कर दी ;
मेरे माजी तुझसे मेरा रिश्ता ;
अब भी वही है …. ”
#SK
भाव पूर्ण रचना बहुत सुंदर
Shukriya Shweta ji 🙂