बहुत दूर से ये रिश्ता,
धुँधला धुँधला सा लगता,
कभी कभी आकर वो इसे,
इक नाम दे जातें है !
हाँ में रुकसत भी नहीं करता,
ना ही थामता हूँ आगे बढकर,
इक दफा उब कर दूरियों से,
हमने बंधनों की सिफारिश की थी !
क्या समझाया था उसने,
या समझ पाया था मैं जितना,
ये रिश्ता बातों के बिना जर्जर नहीं होता,
हाँ तल्ख हो जाती है कभी,
खामोशियों में लिपटकर ये,
पर दूर रहकर भी ये टूटा नहीं कभी !
कभी बनाया है चेहरा तुमने शब्दों से,
मैं हर सुबह समेटता रहता शब्दें,
रात तक उसे इक तस्वीर कर देता !
तुम देखोगे बचपन है कभी उसमें,
कभी आँगन और कुछ फूलों के गमले,
कभी कुछ पंछी भी पास है उनके,
सब मेरी शब्दों के तस्वीर से बनते,
और ऐसे ही बन भी जाती होगी वैसी सुबह !
क्या दूर होकर भी गिरते आँसुओं की,
सिसक सुनी जा सकती,
मेरे शब्द कंधा महसूस कराते है,
मेरे रोने पर !
उब भी जाता हूँ कभी लंबी खामोशियों से,
और झुँझलाता बच्चों की तरह,
कितने दफा लौट जाता मायूसी से,
जैसे खाली मेले से बिना खिलौना लिये,
लौटता वो बच्चा ..
कुछ महसूस हुई वो मायूसी बचपन की !
उस रात माँ फेर देती जो थोरा हाथ,
भूल जाता हर कसक कुछ खोने की,
ऐसी ही कुछ खामोशियाँ मिट जाती,
दूर होकर भी क्या बातें ऐसी होती है !
कुछ कोशिशें अधूरी कई बार हुई होगी,
चलो दूर रहने वालें को कहीं छोर आये,
ये शब्द है दूर होकर भी प्यार जताने आ जाते,
बहुत दूर से ये रिश्ता .. अब भी वैसा ही है !
Sujit