बचपन में इस मंदिर में आके हाथों को ऊपर करके इसे छूने का प्रयत्न करते थे ; तभी पीछे से कोई आके गोद में उठा के हाथों को पहुँचा देता ; कुछ बरसों के बाद दुर से दौड़ के आते ही थोड़ा कूदने पर हाथों को ये घंटियाँ छु जाती थी । बरसों बाद अब भी उसी ऊँचाई पर ये घंटियाँ झूलती है ; आज भी किसी बच्चे को उसके पिता गोद में उठाते और कोई बच्चा दूर से आके हाथों से छुने का प्रयत्न करता । अब मैं थोड़ा सर झुका के नीचे से जाता हूँ ।
मंदिर की घण्टियाँ गुच्छे में ;
वर्षों से झूलती हुई प्रांगण में !
बहुत यत्न बहुत प्रयत्न पर ;
हाथ ना वहाँ तक जा पाता !
फिर पीछे से कोई था आता ;
गोद में ऊपर हाथों को ले जाता !
कुछ बरसों का था कौतुहल ;
सोमवार को होती थी हलचल !
अब दूर से एक लम्बी दौड़ लगाता ;
थोड़ा उछल कर हाथों से छु जाता !
अब भी वही तो होता है ;
कोई आके गोद उठाता है !
कोई फिर लम्बी दौड़ लगाता है ;
अपने हाथों से उन गुच्छों को छु जाता !
मैं पास खड़ा खोया थोड़ा ;
मेरा बचपन फिर मुस्काता !
अब सर को झुका के थोड़ा सा ;
खुद ही हाथों से मैं छू के कदम बढ़ाता !
कितनी कलरव सी धुन होती है इनमें ;
मंदिर की घंटियों से बचपन याद है आता !
#Sujit (Memoirs of Home Town)
बचपन की यादों को संजोता…बढ़ियाँ संस्मरण!
Thanks Kundan ji 🙂