लंबी समांतर रेखा खींचता हुआ ये काफिला जिंदगी का बहुत दूर हो आया था;
ऐसे कितने दफा कोशिश की, साथ साथ चलती ये रेखाएँ काट के निकल जाये,
अपने गंतव्य की ओर, ये समांतर चलना निश्चित दूरियों को बनाएँ,
और नजदीकियों को भी ! बहुत कशमकश से शब्दों को बुनता हुआ;
लिपट जाता किस पशोपेश में फिर … क्योँ कैसा जिक्र ..
बस सवांद था संशय भरा, सीमाओं में सिमटा हुआ,
बनावटी चेहरों से इजाजत ना थी सब कह जाने की .. क्या अधूरा ही था ये संवाद..
{ शब्दों को जितना बिखेरा मन से …
सब मुझसे अपना मर्म पूछते है ! }
क्या जवाब दूँ अपने सब शब्दों का ..क्या मर्म था उनका ?
खुद वाकिफ हो हर राहों और मंजिलों से .. अपने उधेरबुन में वो कुछ उम्मीदों को तलाशता रहता..
यथावत अपने मन से लड़ता हुआ …. समांतर पथ पर अपने कदमों से दूर जाता हुआ !
गंतव्यविहीन ….. गंतव्यविहीन …!!!
□■ SK ■□