जिस्म थक जाता है दिन से रूबरू होकर …
नींद से पहले जो आधे अधूरे थोड़े से,
अब जो भी ख्वाब आ जाते मैं उन्हें समझा दूँगा !
आठ पहर शिकायतों के लिये क्योँ खोजे,
वक्त दो पल की ही मिलती है मुस्कुराने को !
कहीं बहुत दूर इस जहाँ से जा के,
कभी फुर्सतों में खो के सोचेंगे..
क्या गुनाह किया.. क्या दुःख था !
क्या बातें थी जिसे सोचा ना जा सका;
क्या बंदिशे थी जिसे तोड़ा ना जा सका !
हर वादों से निकल कर कह गया,
बिन उम्मीदों के सब राह चुन लिया !
उलझनों को शब्द का पनाह है बस मंजूर,
गुफ्तगूँ बयाँ एक अदद खामोशी कैसी,
अब जो भी ख्वाब आ जाते मैं उन्हें समझा दूँगा !
: – सुजीत
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