त्यौहारों का एकाकीपन – दीवाली ऐसे बड़े पर्व पर बड़े घर और सिमटते परिवार में लोग, पर्व के उल्लास को कम कर रहे । अधिकांश परिवारों में घर के कई सदस्यों का अपने मूल शहर से दूर रहना त्योहारों पर उनका न आ पाना मन को टिस देता है ।
बचपन से हर साल दीवाली नए नए यादों के साथ सँवरती गयी । दीप , घर को झालर से सजाना, फूलों की लड़ी, रंगोली, मिठाई हर साल कुछ अलग कुछ नया, नई यादें आपस का प्यार कभी तकरार । दीवारों पर चढ़ कर भाई से पूछते यहाँ झालर लगा दूँ , यहाँ फूल की लड़ी लटकाऊं, अब खुद ही फूल टांग कर सीढ़ी से उतर कर देखता की कैसा लगता, मेरे लिया त्योहारों का दो दशक इस तरह आँखों के सामने तैर जाता जैसे कल की बात हो साइकिल उठाकर बाजार जा रहे माँ की पूजा के सामान की लिस्ट लेकर…
पटाखे की लिस्ट लम्बी होती थी और बजट कम ही पड़ता था, साल दर साल बजट बढ़ता गया पटाखे भी रंग बिरंग के आते रहे और फिर धीरे धीरे पटाखे भी मन को अब नहीं भाते ।
त्योहारों की तैयारी और सिमटता परिवार और उसमें सीमित लोग संयुक्त परिवार की याद दिलाते जब घर में काम करने वाले कई लोग होते थे, कोई बाजार जा रहा, कोई सफाई, कोई सजावट, कोई पूजा पाठ, कोई खान -पान की तैयारी कर देता था, तब त्यौहार मनाने का समय और ऊर्जा शेष रहता था । अब चीजें बदल रही, बाहर के शहरों से परिवार के सदस्य नहीं आ पाते, सीमित लोगों में त्योहार पर मन मायूसी से भर जाता, अनेकों कामों में कोई हाथ बंटाने वाला नहीं होता, अनेकों घरों में बुजुर्ग माता पिता अनेकों तलों का घर और बच्चे जब नहीं आ पाते त्यौहार कैसे मनता होगा ? ये यतार्थ है आजकल के बदलते परिवेश का । बड़े बड़े घर सुने पड़े रह जाते होगे बस झूलते झालड दीवारों पर पड़े रहते |
त्योहारों पर अकेलेपन की टीस भावनात्मक व्यक्तियों के लिए और उभर के निकल आती, पर विकल्प भी कुछ नहीं !
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