
सुबह भी जारी थी
सीढ़ियों से उतरते,
घुमावदार बोझ सी लगती,
ये चडाव और उतार सीढ़ियों की !झुंझलाहट उतार भी दे किसपर; उसपर जो अनसुना था मेरे बातों से !
शाम सड़क पर जैसे साल का अंतिम पड़ाव, उसके बचे कुछ महीने !मौसम भी जैसे यादों का एक कोना छुपाये, कैसे अनजान गलियों में सर्दियों के ठीक पहले,
थोरे ठण्ड के बीच ! अनजान से चेहरों में कौतुहल के साथ गुजरता, जैसे मन को बता रहा !
आगे २-३ गली के बाद मंदिर और फिर किराये का वो मकान !
और वही सीढियाँ …
बीते साल ने कई किस्से .. कई यादें उड़ेले !
हवाओं में फिर वही महसूस हुआ थोरी सी सिहरन शाम की ..
कदम रुकते रुकते बढ़ चला मन पीछे मुड, नजाने किन रिश्तों की बाट जोह रहा था !
Night & Pen : SK