निर्वात पथ पर अब संवाद नहीं ;
व्यर्थ वक़्त का तिरस्कार नहीं !
शून्य सफर पर अब श्रृंगार ही क्या ?
विचलित पथ का उपहास ही क्या ?
मौन पड़े इस प्राँगण में ;
कुछ खींचनी फिर रंगोली है !
शाम होती गोधूलि पर ;
रात फिर नई नवेली है !
मंजिल की तैयारी पर ;
पीछे छूटी हवेली है !
हर संशय का है सार यही ;
अगर चलता है तो हार नहीं !
#Sujit
बहुत बढ़िया ! आपकी नयी रचना बहुत अच्छी लगी, आखिर के दो लाइन महत्वपूर्ण लगी http://www.gyanipandit.com की और से शुभकामनाये !
थैंक्स
शुक्रिया मेरी हर रचना की सराहना के लिए ! आपका धन्यवाद !!