अलग अलग मंजिलों पर रहता मैं,
कभी जिंदगी की तन्हाई तलाशने,
ऊपर छत पर एक कमरा है,
पुराना रेडियो पुरानी कुर्सी,
और धूल लगी हुई कई तस्वीरें,
जिंदगी से ऊब कर बैठता जा मैं उस मंजिल पर,
कभी तलघर वाली मंजिल पर चला जाता,
मकड़ी के जालों में सर घुसा ढूँढता हूँ बचपन की चीजें,
बांकी अलग अलग मंजिल पर अलग अलग जिंदगी है,
किसी मंजिल पर बच्चें है,
किसी मंजिल पर बहू रहती,
किसी मंजिल पर माँ बाबूजी,
मैं किस मंजिल की ओर चला था,
अब किसी मंजिल पर कहीं रह लेता हूँ,
उम्र दर उम्र बदलते रिश्तें बदलती मंजिल,
सोचा था एक ही मंजिल पर उम्र कट जाती तो,
एक बुकशेल्फ बनवाता खूब सारे किताबें भर देता,
अब हर मंजिल पर कुछ किताबें छूट जाती ,
कुछ किताबों को मैं समेट कर किसी मंजिल पर ले के जाता,
पता नहीं कोई स्थाई ठिकाना न हो तो उसे खानाबदोश ही कहते है,
उम्र का हर एक पड़ाव मंजिल बदल देता,
अलग अलग मंजिलों पर रह जिंदगी खानाबदोश सी है |
#SK