फसल सी हिलती डुलती भीड़,
सड़कों पर हो आती ..
ये पुरानी खेतें ..
एक जिंदा शहर बन जाती !
कितनी तंग गलियों से गुजरते गुजरते,
दूर जा के ये एक लंबी सी सड़क बन जाती !
पगडंडियों चलता, ऊँची नीची राहों फिसलता;
अब सोचता खड़ा वहीं जमीं चलने लग जाती !
कहते दहशतगर्द होंगे इस भीड़ में कहीं,
मुझे परेशानियों में भागते हर चेहरें में,
बस इंसानियत ही दिख जाती !
नींद और ख्वाब में भेद नहीं रहा,
छा जाता दिन अँधेरा कभी ..
तो कभी ये रात ही सुकून ले आती !!
बेनामों का मेला रोज ही होता,
चुपचाप सी जिंदगी चीखती कहीं,
हर तरफ अब
ये पुरानी खेतें ..
एक जिंदा शहर बन जाती !
#सुजीत