किसी भी लहजे में तो नहीं कहा,
की तुम्हारी कई बातें अच्छी नहीं,
झुंझलाहट भरी थी चुप्पी तेरी,
प्रेम में डूब के कैसे कहता की,
कुछ द्वेष भी तो पलने लगा अंदर,
कैसे बदलने लगा था व्वयहार तेरा,
बदल के तुम वो नहीं रहे अब,
या बदल के अब कैसे हो गए,
यहाँ कौन निर्धारण करेगा,
मेरा या तुम्हारा कर्म हो कैसा,
कोई तो तय नहीं कर सकता समयसीमा,
कौन किससे कबतक जुड़ा रहे,
या छुड़ा के जा सकता है दामन भी,
कैसे उस असंतोष को जताया जाता,
की तुम सहज ही रहे इस बिखराव पर,
और मेरा मन वेदना से भरा था !
किसी भी लहजे में तो नहीं कहा,
कह ही नहीं पाता शायद सामने,
हृदय मैं उठते क्षोभ के लिए बस,
मैं कुछ कवितायेँ ही लिख सका !
#SK
thank you sir for sharing this wonderful poem
Welcome 🙂
Thank you shujit kumar for this great poem post.
Thanks sujit kumar for this great poem post.
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