बचपन की निश्छल अल्हरता को,
को कभी झुँझलाहट बनते देखा !
जो खुल के भी कभी रोते थे,
उसे चुप हो के सिसकते देखा !
किसी आँगन में जो खेला करती,
उन खाली पाँवों में पायल को बँधते देखा !
उस दुपहर में जिद कर कितनी
कभी उस आँचल में सिर रख सोती !
आज भरी दुपहरी बीती ..
बीती पहर अब तक बस कंठ भिगोते देखा !
थे साथ संग तो इक रिश्ता,
अब आयाम वो मुश्किल था,
बेमन से जाते हाथ छुरा के,
हमने ना कभी उन्हें है देखा !
किसी द्वंद में जब खामोश पड़े,
खुद राहों को चुनते उसे है देखा !
उम्र पड़ाव की दहलीजों पर,
जीवन को बदलते देखा !
प्रणय प्यार के बंधन को,
नियती से बिखरते देखा,
काँच के कुछ टुकड़ों पर,
लाल रंग को मिटते देखा !
कभी रिश्तों ने किया दूर उसे,
कभी खुद रिश्तों से दूर परे,
जीवन की किसी पड़ाव पर आके,
गुड़िया को फिर परायी बनते है देखा !
(इस कविता का प्रथम भाग – ‘एक गुड़िया परायी‘ )
: – सुजीत कुमार
एक गुड़िया परायी – 2 कविता बहुत ही बढ़िया, आखीर की कुछ पंक्तिया काफी अच्छी हैं.