इक ऐसी ही शाम रोजमर्रा की .. नियत समय से मेट्रो में अपने गंतव्य की ओर जाने को आतुर और दुनिया भर की बातों की धुनी जमाए अपने कार्यस्थल के मित्रों के साथ .. निशांत, आदर्श, दिनेश !ऐसे ही कुछ पड़ाव पार करने पर फोन की ट्रिन ट्रिन; बातचीत में विराम सा लगाती; राज का फोन था, सोचा शाम में, सुबह शायद वजह होती “सर जी लेट हो रहा” ऐसे शाम को सर जी को याद रखने वालों की कमी ही है,फिर पूछा बताये – सर आप मेट्रो में हूँ, स्वीकृति में हाँ कहाँ सर आज कुछ विलम्ब हो सकता.. राजीव चौक में कुछ लाइन डिस्टर्ब है .. आप बस या ऑटो से चले जाना; ये विलम्ब सुन के थकान और बढ़ गयी !
फिर सोचा चलो देखते, सब मित्रों ने भी हाँ में हाँ मिला दी, अरे चलते बाद में देखेगें वहाँ जा के ! आदर्श भाई कुछ ज्यादा ही उतेजित होते .. लड़कपन है अभी !! दिनेश और निशांत सर ने हामी भरी .. चलते है //राजीव चौक के पहले ही संकेत मिल रहे थे मेट्रो की धीमी रफ्तार और बेतहाशा भीढ़ की आगे क्या होगा ! पहुँचे किसी तरह .. धक्का मुक्की भाई जरा .. किसी तरह चलने वाली सीढी तक और फिर ऊपर की तरह नजारा मेले जैसे था,गुच्छे में लोग, जैसे ७-८ लाख लोगों को रोज अपने गंतव्य तक आने ले जाने वाला तंत्र बेबस सा .. भीड़ बढती जा रही थी, अब हमे सोचना था क्या किया जाये मेट्रोनामा छोरे और चले दिल्ली दर्शन की ओर !
बस निकले किस ओर से पता नहीं, स्टेशन का गेट बंद ही होने वाला था, ऊपर थी फिल्मों वाली दिल्ली .. इवनिंग @ कनाट प्लेस ! तड़क भड़क से भरपूर .. रेस्त्रां-बार इक बार तो मन हुआ .. काश वीकेंड होता ….चलो आगे चलते साथ बचे थे निशांत जी और कुमार आदर्श .. पूरा इक चक्कर मारा की बस कहाँ मिले ..कुछ नहीं मिला .. पान वाला से पता पूछिए अनजान सड़कों पर, भाई इधर से सीधा, लाल बत्ती पार कर खरे हो जाओ बस ..चलने लगे उसी ओर .. बसें पता नहीं अनेकों संख्याओं वाली लाल हरी ..कहाँ जाती पता नहीं .. सड़कों पर मेट्रो बंद का असर था, ऑटो कोई जाने को तैयार नहीं ! अब क्या करना .. घूमते घूमते आकर बैठ गये फुटपाथ के किनारे !
कवि की कल्पना उमरने लगी …
अनेकों चेहरों की देखों अनजान सी लगती देखती एकटक,
कुछ नहीं कहती, दिन ढलने का सबब है इन चेहरों पर,
ये बड़ी लेम्पपोस्ट, दुधिया रोशनी बिखेरती खरी है !
भागती सड़कों पर क्या है जिंदगी परेशान सी,
कुछ दूर ही ऊपर चाँद भी दिख गया इस शहर में,
कुछ पूछा नहीं उस चाँद से क्या सोच रहा वो !
आदर्श भाई लपक के ये चना भुजा कितने का है .. ३० का ४० का जल्दी बोलों, छोरो यार सब लूटने को बैठे है .. इक हँसी फैली और चल दिए !कुछ पल बैठे रहे, मेट्रो में नीचे जा के इक असफल प्रयास किया ५०० की लंबी कतार हिम्मत टूट गयी जाने का ! फिर पुनः उसी जगह ..आते जाते लोगों को निहारते,लग रहा था .. आपातकाल हो देश में, पुलिस की गाड़ियां .. पीछे हो जाओ .. लाइन में खरे रहो .. इक महिला उलझ रही थी ..क्या सुरक्षा ..नहीं जाना पीछे ..बस पकरना है.. सड़क पर नहीं तो कहाँ जाये ! शाम थकान से परे खुशनुमा सी हो गयी थी .. घर जाने की जल्दबाजी ढल गयी थी इसी शाम के साथ ! फिर बस इसी तरह कुछ देर बाद “मेट्रो अब पुनः सेवा के लिये तैयार है” सुनते ही .. चले मेट्रो स्टेशन की ओर वहीँ रोज का सफर अपने गंतव्य की ओर .. मेट्रोनामा कुछ संगी साथी .. इक शाम यूँ ही !!
पात्र :
दिनेश : @0_dinesharma
निशांत : @YNishant
आदर्श : @ErKumarAdarsh
राज : @raj_kabira
और मैं …… @sujit_kr_lucky
आखिर कवि की ‘कलम’ ने पंक्तियाँ तलाश ही लीं….अच्छा लगा ।अब तो लगता हैं की हर महीने १-२ बार तो ‘मेट्रो जाम’ होना ही चाहिए,,कुछ अलग पढने को तो मिलेगा।।
मेट्रो शहर की इस भागती दौड़ती जिंदगी में मेट्रो की रूकती-चलती कहानी कुछ-कुछ अपनी सी लगने लगी है.
शहर बदलता .. आयाम बदलता .. चुनौतियाँ आती .. हम आगे चलते जाते ! पर अपनापन, रिश्ते ये कभी नहीं बदलते ना ही इनका अर्थ कभी .. !!
Agar fir se vahi panktiya duhrai gai to…. khair nahi!!