पता नहीं किस गुनाह की माफ़ी में
हर आते जाते रास्तों पर दो चार सिक्के बाँट आता ।
रिश्ता भी रखता हूँ दोस्ती का,
फिक्र भी और इबादत भी करता,
बेरुखी में दिल भी उतना दुखा ही जाता ।
पता नहीं किस उम्र की कसक रह गयी थी,
गुब्बारे तो ले लेता ..
किसी बच्चे के हाथों में दे के उड़ा जाता ।
बाँटता हमेशा सबको सब चीजें खुशियों की;
अपनी चीजों की जरुरत तुझसे छुपा जाता ।
होंगे कई ऐब मेरे सोचे गये तस्वीरों में,
मैं अपने उन सब रंगों को ही मिटा जाता ।
दर पर सजदा कर मांग लेता दुआ अपनी,
मालूम है खुदा तू देगा नहीं मुझे मेरी दुआ,
ये सोच काफ़िर बन खुद को फिर अपना जाता ।
#SK
3 thoughts on “काफ़िर …. !!”
काफ़िर – 2 …. !!
(May 10, 2014 - 7:06 pm)वो काफिर मंदिर की सीढ़ियों तक ही रहता …..
Alok
(May 15, 2014 - 4:35 am)well written ….
Sujit Kumar Lucky
(May 15, 2014 - 6:33 pm)Thanks …
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