पता नहीं किस गुनाह की माफ़ी में
हर आते जाते रास्तों पर दो चार सिक्के बाँट आता ।
रिश्ता भी रखता हूँ दोस्ती का,
फिक्र भी और इबादत भी करता,
बेरुखी में दिल भी उतना दुखा ही जाता ।
पता नहीं किस उम्र की कसक रह गयी थी,
गुब्बारे तो ले लेता ..
किसी बच्चे के हाथों में दे के उड़ा जाता ।
बाँटता हमेशा सबको सब चीजें खुशियों की;
अपनी चीजों की जरुरत तुझसे छुपा जाता ।
होंगे कई ऐब मेरे सोचे गये तस्वीरों में,
मैं अपने उन सब रंगों को ही मिटा जाता ।
दर पर सजदा कर मांग लेता दुआ अपनी,
मालूम है खुदा तू देगा नहीं मुझे मेरी दुआ,
ये सोच काफ़िर बन खुद को फिर अपना जाता ।
#SK
well written ….
Thanks …