वक्त टूटी ..नींद छुटी,
आवाज दे गए थे शायद,
देखा सिरहाने कुछ लब्ज थे परे,
गुनगुनाये तेरे, कह गए बात कुछ !
बीती रात का भ्रम सही या,
या सुबह होने का सच था खड़ा !
चले गए थे .. ख्वाब के तरह..
वो ख्वाब जो टूटता है रोज,
संवर जाता रोज अपने टुकड़े सहेज के,
फिदरत सी है उसे टूट जाने की,
आदत सी चुप हो जाने की !
फिर भी क्योँ इंतेजार है उसे रात का,
कुछ भूली बिसरी बात का,
जो भले तोड़े उसे, छोड़े उसे !
फिर पहर रात की होने को,
एक ख्वाब खड़ा फिर सजने को !
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