इक जैसे चेहरे कब से,
ना भाव भंगिमा कुछ भी,
पत्थर की मूरतें हो जैसे,
सदियों से वैसे ही अब तक,
शिकवे शिकन सजते रहे चेहरों पर,
हमें इंसा होने का गुम तो बना रहता !
पढ़ें शब्द मेरे, भाव तो ना जाना,
अब चुप हो जब मेरे रूठने का,
सबब तो भी ना पहचाना !
आज थोड़ी से गुस्ताखी में दो शब्द क्या कहे !
मेरे सारे जज्बात ही झूठे हो गये पुराने !
यूँ तो कई बार खामोश होते देखा तुम्हें !
ये फ़िक्र देखो तेरे लिये आज भी नया है ..!
काफ़िर या दे दो नाम कोई…
धरती के खुदाओं ने हमे रहमत से नकारा है !
तकरार भी इक बार हो जाये तो,
हम तो खामोशी भी उम्र भर निभायेगें !