किसी रोज की दूसरी बारिश थी,
बुँदे इस तरह कांचों से फिसल गये,
जैसे धुल गये अवसाद कितने पुराने,
लिपटते रहे बूंदें कांचों से कितने भी,
रिश्ते कच्चे थे हाथों से फिसल से गये !
हर मुसाफिर गमगीन था अपने यादों में,
इस शहर की बारिश में सब बिसर से गये,
आसमाँ सिमट से गये, बादल भी बिखर से गये,
ना पूछा हवाओं से रुख किस ओर है जाना,
वो बहते रहे कुछ कहते रहे, ना साथ चले वो,
ना मंजिल सफर जाना, जिधर रुख किये चलते ही रह गये !
हम दूर कितने जा के जिंदगी जानेगें अब,
कितने ख्वाब टूटे, कितनी यादें उजर से गये,
सब रिश्ते कच्चे थे हाथों से फिसल से गये !
#SK