कई महीनों बंद रहता वो मकां,
मेहमान नवाजी अब नहीं होती वहाँ !
रुक के आते जाते सब देखते थे,
कोई खैर पूछता दिख जाता था,
अब आते जाते लोग मायूसी से,
सर झुकाये निकल जाते है,
कई महीनों जो बंद रहता है वो मकां !
कई ठोकरों पर खुल पाती,
लटकते ताले दरवाजों से,
शायद कभी देखा हो किसी ने,
जंजीरों को लटकते इन दरवाजों पर,
अब कई महीनों बंद रहता वो मकां !
हवायें ले आती थी धुल और सुखी पत्तियाँ,
रोज सुबह बड़े जतन से हर कोना साफ़ होता था,
अब मकरी की जालियाँ हर कोने में बन आती,
धूलों की आँधियों से फर्श ढक जातें है,
जिन सीढियों के स्तंभों पर हाथ रख चलते थे बच्चे,
आज बेलें सर्प सी लिपट गयी है चारों ओर,
अब कई महीनों बंद रहता वो मकां !
छत पर रोज जल जाती थी गोधुली की दीपें,
अब आँगन की तुलसी मुरझाई हुई है,
कभी शोर सुनाई पड़ता है कमरों में,
परदे हट जातें है खिड़कियों से,
जान परता कोई आया होगा लौट के,
फिर वही सन्नाटा पसर जाता कुछ दिनों में,
अब कई महीनों बंद रहता वो मकां !
सुजीत
वीरान मकां की मार्मिक दास्ताँ
छत पर रोज जल जाती थी गोधुली की दीपें,
अब आँगन की तुलसी मुरझाई हुई है..
bahut khoobsurat hai
shukriya dost !!