स्नेह, उपेक्षा, मायूसी, विक्षोभ के इर्द-गिर्द घुमती एक कविता !!!
कल्पित चित्र था सुबह का ,
दो पंछी रोज आते थे ,
बरामदे पर आके चहलकदमी करते,
तेरी आवाज से वाकिफ थे दोनों,
वहीँ गमले के इर्द गिर्द खेला करते,
कुछ दाने तेरे हाथों से लेके,
उड़ जाते थे खुले आसमां में !
आज बंद खिड़कियों पर,
ताक झाँक करती रही इधर उधर,
चोंचो को गुस्से से पटका चौखटों पर,
देखा भी नहीं ; कल के कुछ दाने बिखरे थे,
वो तेरी हाथों का मिठास जानते थे,
प्रतीक्षा के कई दिवस यूँ ही बिताये,
तुमने आवाज न दी फिर,
वो मायूसी से उड़े आसमां में !
किसी गली में बेजान गिरे मिले,
उपेक्षित निष्प्राण स्नेह से वंचित !
तेरी ख़ामोशी ने उनका गला घोंटा था !
#Sujit