घर में कोई छोटा जब शैतानियाँ करता बचपन याद आ जाता, एक कविता इसी बचपन और उसके कौतुहल के इर्द गिर्द !!
अब तेरी शैतानियाँ बढ़ गयी है ;
लिपटना झपटना सब सीख़ लिया ;
घुटनों पर चल सब कोने तुमने देख लिए घर के ;
फर्श के सारे समान अब ऊपर सरका दिए है हमने ।
टीवी का रिमोट अब साबुत नहीं बचा ,
कुरेद दिया छोटे दो दांतों से कई सारे बटन ,
जो हैं उनकी लिखवाटें मिट गयी वो पढ़ने में नहीं आते ।
अब तेरी शैतानियाँ बढ़ गयी है !
थाली देखते ही तू भाग के आता ;
सबकुछ तुम्हें चख के है देखना ;
टच स्क्रीन मोबाइल पर आ गयी है खरोंचे ;
तुम्हारे छोटे नाखूनों ने खुरच दिया इसे,
अब तेरी शैतानियाँ बढ़ गयी है !
सारे के सारे खिलौने बिखरे पड़े,
कोई साबुत भी तो नहीं बचा,
किसी के हाथ, कार का चक्का,
भालू की टोपी, बंदर की पूंछ,
वो ट्रेन भी तो रुक रुक के चलता,
अब तेरी शैतानियाँ बढ़ गयी है !
बेमेल इकहरे शब्दों से भर जाता कमरा,
तुम्हें सिखाने में सब बन जाते बच्चे,
कितनी जल्दी वक़्त बीतता,
दिन की पकड़ा-पकड़ी,
और शाम माँ की लोरी,
अब जो तेरी शैतानियाँ बढ़ गयी है !
#SK
hey i like your poems, i wrote a poem too, i would be thankful if u share my poem on your blog https://youtu.be/Gur6HCu-1lA