एक आदत सी इधर से डाली है,
रोज ऊपरी मंजिल पर आ मैं,
पेड़ की झुरमुटों में चाँद देखा करता,
एक दिन पूरा था तुम्हारी तरह,
हजारों सितारों के बीच अलग सा,
वैसी ही उजली सी नहायी हुई,
लपेटे हया का चादर चारों तरफ,
झाँकते हुए बादलों की ओट से !
कुछ दिनों से वो रोज घटता है,
अपना अक्स वो छुपाता है,
जैसे नजरें चुराता रोज ही,
किस्तों किस्तों में दूर जाता हुआ,
तुम्हारी ही तरह आदत है इसकी !
और फिर एक अमावस की रात,
सितारों से सजी सुनी आँगन में,
ना कुछ आहटें है तुम्हारी कहीं,
खो गए हो इस काली रातों में,
शायद उस आसमां की ओट में,
छुपे हो रूठे हुए अपनी आदतों जैसे,
पूनम और अमावस के बीच विरह है,
लेकिन चाँद लौटता है फिर इन सितारों के बीच ;
चाँद और तुम में शायद अब यही फर्क है !
#Sujit
और फिर एक अमावस की रात,
सितारों से सजी सुनी आँगन में,
ना कुछ आहटें है तुम्हारी कहीं,
खो गए हो इस काली रातों में,
शायद उस आसमां की ओट में,
छुपे हो रूठे हुए अपनी आदतों जैसे,
पूनम और अमावस के बीच विरह है,
लेकिन चाँद लौटता है फिर इन सितारों के बीच ;
चाँद और तुम में शायद अब यही फर्क है
बहुत सुन्दर शब्दों में महबूब की तुलना चाँद से करी है आपने। और अंतिम पैराग्राफ बहुत ही उत्तम लिखा है !
एक आदत सी इधर….. khoobsurat
thanks
shukriya !