कई मौसम इक इक करके बीते ;
प्रवास के परिंदें इस बार नहीं लौटे !
सावन बीता शीत की रातें भी लौटी,
लौटी बातें और सारी यादें भी लौटी,
प्रवास के परिंदें इस बार नहीं लौटे !
पेड़ों की डालियाँ उचक उचक कर ताकती है ,
देखती रही इन्तेजार से राह बादल घिरने पर,
सोचती है आता होगा कोई बगिया में झूमने को,
इस बार कोई नहीं आया, कोई न लौटा !
तेरे कलरव बिना,
सुनी सुनी सी पड़ी है हर डालें,
कोई कहीं अजनबी सा मिलता है,
आस दिखती है फिर कोई लौटेगा !
प्रवासी परिंदे .. तुम्हें लौटना था फिर,
अधूरे प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए,
पलायन के विरह से मुक्ति के लिए !
क्यों लौट के नहीं आये ?
क्या नहीं रहा अब प्रेम हमसे ?
साथ बीते संग के कसक से सोचते,
वो अपने थे ही नहीं जो नहीं लौटे,
प्रवास के परिंदे इस बार नहीं लौटे ।
# Sujit
2 thoughts on “प्रवास के परिंदें ..”
gyanipandit
(November 6, 2015 - 8:49 am)बेहतरीन रचना, आखीर की पंक्तिया ज्यादा अच्छी लगी, धन्यवाद्
Sujit Kumar Lucky
(November 6, 2015 - 6:29 pm)बहुत बहुत धन्यवाद !!
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