कई मौसम इक इक करके बीते ;
प्रवास के परिंदें इस बार नहीं लौटे !
सावन बीता शीत की रातें भी लौटी,
लौटी बातें और सारी यादें भी लौटी,
प्रवास के परिंदें इस बार नहीं लौटे !
पेड़ों की डालियाँ उचक उचक कर ताकती है ,
देखती रही इन्तेजार से राह बादल घिरने पर,
सोचती है आता होगा कोई बगिया में झूमने को,
इस बार कोई नहीं आया, कोई न लौटा !
तेरे कलरव बिना,
सुनी सुनी सी पड़ी है हर डालें,
कोई कहीं अजनबी सा मिलता है,
आस दिखती है फिर कोई लौटेगा !
प्रवासी परिंदे .. तुम्हें लौटना था फिर,
अधूरे प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए,
पलायन के विरह से मुक्ति के लिए !
क्यों लौट के नहीं आये ?
क्या नहीं रहा अब प्रेम हमसे ?
साथ बीते संग के कसक से सोचते,
वो अपने थे ही नहीं जो नहीं लौटे,
प्रवास के परिंदे इस बार नहीं लौटे ।
# Sujit
बेहतरीन रचना, आखीर की पंक्तिया ज्यादा अच्छी लगी, धन्यवाद्
बहुत बहुत धन्यवाद !!