अब सुबह की दो बातें,
और रातों में उलझनों का बयाँ,
क्या शायद तकलीफ दे रही थी !
कुछ दिन पहले ही तो खामोशी के,
कई परतों को खोला था हमने,
और सदियों के इंतेजार पर,
वो दो टुक बस लिखना तेरा जवाब,
फैसला और फासलों जैसी बातें,
कितना कुछ था उसमें समाया !
वो संवाद आदतन कब तक चलता,
इक दिन घुटन सी महसूस सी हुई,
कुछ दिनों के लिये नब्जों को रोक दिया !
इंतेजार तो ताउम्र ही करना था,
और फिर धड़कन की आवाज ने,
फिर खामोशी तोड़ दी !
परती जा रही गिरह को,
एकतरफ सुलझा सा लिया मैंने,
बेमन सी बातों का समझौता,
कुछ मुस्कुराहटों के लिये काफी था !
उस दिन फिर उदास सी शाम को,
इक वजह थी ..
फिर किसी इक नये ख्वाब को सजाने की !
कुछ हवाओं ने उठकर जरुर घुटन कम की,
धुल से सने चेहरों पर फिर भी काबिज थी दरारें !
फिर बुलाते पुराने शब्दों से,
करते जिक्र, कुछ बातें..तारीफों के दो लब्ज़ !
पर मेरा अधूरा अक्स.. वहम तले था !
Poem : – सुजीत