दासता को तोड़ वर्षों पहले फेंका,
और फिर था आजाद अपना जहाँ ।
जिस जंजीर को हमने उतार फेंका था,
कड़ियाँ उसकी फिर हर तरफ जुड़ती जा रही,
आजादी अपनी फिर बेड़ियों में घिरती आ रही ।
हर सड़कों पर मारा मारा हो आता वो बच्चा,
जब हाथों में छोटे छोटे तिरंगे लिए,
मैं कैसे मानूं मेरे देश का हुक्मरान बदला ।
वो माँ जो बड़े लाड से निवाले हाथों से खिलाती थी,
अब वो पलायन कर पुत पराया हो गया,
सालों भर होली दिवाली बाट जोहती,
कदमों से दहलीजों को छु जाने की,
मैं कैसे मानूं मेरे देश का हुक्मरान बदला ।
सूट से खद्दर पोशाकों का शासन बदला,
बस बन्धुकों खंजरों का मजहब बदला,
मैं कैसे मानूं मेरे देश का हुक्मरान बदला ।
फिर क्यों हर वर्ष ये उत्सव आजादी ?
हर वर्ष क्यों न टूटे कुछ बेड़ियाँ ?
क्यों ना तोड़े ग़ुलामी मनों की,
अब हो अजान आरती जन गण मन की ।
अपनी जमीं अपना आसमां अपने चमन की,
तन मन से नमन हो अपने वतन की ।
जय हिन्द। भारत माता की जय।
: – सुजीत