बीतते दिन का मंजर ऐसा है ,
जैसे उम्र पतझड़ सी जिंदगी ।
बोझिल मन ऐसा होता,
जैसे शाम उतर आयी हो सीने में ।
झुरमुटों में कैद दिन का सूरज,
ढल रहा है छितिज की सीमा पर ।
दिन का शबाब खत्म हो कर,
अब धुंधली हो चली शाम सी ।
रोज ढलता रोज ही डूबता,
जैसे मन में दब जाती कई हसरतें ।
फिर अंधेरे की कसमसाहट आतुर,
और दिल के सन्नाटे में कुछ गुबार भी ।
शाम की दस्तक यतार्थ है,
फिर सुबह होगी, सुबह होगी ।
~ Sujit