काले और उजले कसीदे से चौकोर खानो में दिमाग दौड़ाने की,
ये वो लम्हा था जब पहली बार रूबरू से हुए उस खेल से,
जिसके नाम से नसें तनती थी कुछ भारी भरकम होगा,
शायद अभी तो ना ही सीख पाउँगा ये सोचा था उसने !
एक दिन कहीं से उसे मिल गया गत्ते का वो खेल,
और प्लाटिक के डब्बे में पूरी सपनों की फ़ौज !
स्कूल से आते ही वो झट से पलट डब्बे को…
दोनों तरफ सजाने में जुट जाता.. ………….
खुद ही खुश हो जाता था पूरी सजी सजायी आमने सामने खड़े मोहरों को देख !
अब में मोहरों को ले आगे बढने लगा था, कभी गुस्सा हो अपने पर..
जब मेरे सिपाही जल्दी कट के चुपचाप कोने में खड़े तमाशबीन हो जाते,
हार तय सी लगती, मन करता हाथ से उजाड़ तो सब मोहरे ..
पर अंत तक,
एक आखिरी दाव लगाने तक, कुछ समय की कशमकश सिखा था वहीं से..
आज वही शतरंज का खिलाड़ी .. मोहरा है .. वो बिसात जीवन सा ;
और कशमकश दाव उम्मीदें सब जीने का हुनर सिखा गये !
IN Night & Pen : SK (Aug, 09, 2013)