शाम की धमाचौकरी को एक फटकार विराम लगाती थी,
पैर पखारे सब लालटेन तले अपनी टोली सी बन जाती थी!
जोर जोर से पड़ते थे, हिंदी की किताबे..
लगता था एक होढ़ सा, हर आँगन से वही आवाजे आती थी !
नहीं हुआ है, अभी सवेरा, और खूब लड़ी मर्दानी की गाथा,
हम जोर जोर से गाते थे, कुर्सी पर बैठे दादा जी धीमे से मुस्काते थे !
जब पलके भारी हो जाती थी,
जब लालटेन धीमा पर जाता था !
आँखे बोझिल होने से पहले,
माँ थाली ले आ जाती थी !
और अपना मन, लालटेन तले,
बचपन में खो जाती थी !
धीरे धीरे ये सुन लालटेन भी सो जाती थी !
[About This Poem:]
महानगर की लैम्प पोस्ट या सतत रहती चकाचौंध, पर आज कंप्यूटर पर थिरकते उँगलियों की पौध लालटेन तले ही बनी थी,
वो बचपन की शाम, गाँव के हर घर पर अपने समयानुसार जलता लालटेन, और उसके इर्द गिर्द बैठे हम-उम्र बच्चे, यह केवल लालटेन युग का सूचक ही नही,
बल्कि समय , अनुसाशन, हमारे पूर्वजो की सजगता का भी परिचय देती, आज की द्रुत गति में हम भले ही नियत समय पर लालटेन तले ना घिरे,
पर लालटेन तले की रौशनी ..यूँ ही हमारे अंदर जलती जा रही ..
# सुजीत भारद्वाज
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