दो अपनों ने मिल के उड़ाया था,
कभी उस सफ़ेद कबूतर को ।
दो अपनों के घरों के बीच ;
उसे सरहदों का क्या पता था ।
खुली आसमानों और हवायें
दोनों तरफ तो एक सी थी ।
एक दिन उसकी परों को काट दिया किसी ने ;
कुछ लहू की बुँदे झेलम में घिरी ;
यूँ ही बहती नदी में वो बह गयी ;
कुछ बुँदे ट्यूलिप के खेत में गिरी थी ;
लाल फूलों में वो भी यूँ ही खो गयी ।
झीलों ने ओढ़ ली है चुप्पी ;
शिकारे ठहर सी गयी किनारों पर ;
गरजती बंदूकों के सायों ने;
लील ली है जन्नत की हर हँसी;
सुना कल रात जल उठा था आसमां !
झंडों में लिपट कर आ गयी कई लाशें ;
आखिर …
सबने लौटकर वापस आने का वादा किया था !
चेहरों और जिस्म पर जख्म तो कई थे ;
दिल में जो दर्द था वो यूँ ही परा रह गया ;
कब तक? एक सवाल और फिर गहरा हो गया !
#SK – ये कविता कश्मीर के शहीद वीर जवानों को समर्पित !