परछाई सी थी साथ साथ चलता मालूम होता था ;
जैसे एकपल हाथ छू गया होगा तेज क़दमों में ;
तूने समझा उसकी साजिश सजा में हाथ छुड़ा लिया ;
बस वहीँ ठिठक कर रुक गया था वो आगे नही गया ;
सर पर धुप थी खड़ी परछाई उसकी पैरों में आ पड़ी ;
पर वो दूर जाते देखता रहा, जाता साया लम्बा दूर होता रहा !
अब शाम थी सारी परछाइयाँ सिमट कर नजाने;
कहाँ खो गयी थी, भीड़ थी पसरी कितने चेहरों की ;
कोई साया नही था अब था तो जीता जागता हर सख्स ;
वो सोचता रहा परछाईं जो साथ साथ चलती रही उम्र भर ;
कहाँ किस कदर खो गयी उस दूर ढलते आसमानों के पार;
जाती परछाई कह रही थी उसे आभाषी दुनिया का इंसान !
आभाषी दुनिया परछाईयों की जो ना बोलती है ,
जो ना कभी सुनती है जो ना कभी समझती ;
साथ चलने वाली परछाइयाँ जिसे छुआ नहीं जा सकता ;
हाथ पकड़ कर उन सायों का दुर जाया नहीं जा सकता ;
फिर कैसे उस दिन उन सायों ने दामन छुड़ा लिया ;
शायद वो परछाइयाँ कहती रही कहती रही ;
आभाषी दुनिया के इंसानो में जीवन नहीं होता !
#SK
अब शाम थी सारी परछाइयाँ सिमट कर नजाने;
कहाँ खो गयी थी, भीड़ थी पसरी कितने चेहरों की ;
कोई साया नही था अब था तो जीता जागता हर सख्स ;
वो सोचता रहा परछाईं जो साथ साथ चलती रही उम्र भर ;
कहाँ किस कदर खो गयी उस दूर ढलते आसमानों के पार;
जाती परछाई कह रही थी उसे आभाषी दुनिया का इंसान !
बहुत खूबसूरत शब्द
shukriya !!
The poem is just awsome…i love to read poems and i really appreciate your one as well…keep posting with lots more of such with such nice poems.