विरह वियोग संयोग है ;
कुछ ऐसा ये तो रोग है !
मृग मारिचका सा क्षण है ;
भ्रम टूटे बस ऐसा प्रयत्न है !
यतार्थ थे तो पास भी थे ;
कृत्रिम पर अधिकार नहीं !
मन चंचल निष्प्राण हो गए ;
जीते जी पाषाण हो गए !
आहट पर सुध नहीं होती ;
मन जैसे कोई जलती अंगीठी !
तमस में होता द्वार कहीं;
जीवन का श्रृंगार यही !
– Sujit
सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (25-01-2015) को “मुखर होती एक मूक वेदना” (चर्चा-1869) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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बसन्तपञ्चमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ…
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
मन चंचल निष्प्राण हो गए ;
जीते जी पाषाण हो गए !
आहट पर सुध नहीं होती ;
मन जैसे कोई जलती अंगीठी !
तमस में होता द्वार कहीं;
जीवन का श्रृंगार यही !
सुन्दर शब्द सुजीत जी