वो जो रातों को अधजगा सा रखता,
अजनबी संग देखो सब भेद है कहता,
यूँ ही मन ही मन कुछ गुनगुनाता है रहता !
ये जो कुछ कुछ अपना सा लगने लगा है,
ये देखो कौन अब कुछ नया चुनने लगा है,
खुद से मन जो कुछ अब कहने लगा है !
हाथों की लकीरों का ये खेल सा लगता,
या बरसों का छुपा कुछ भेद सा लगता,
या रिश्तों की नई डोर का संयोग सा लगता !
वो जो रातों को जो अधजगा सा रखता,
शायद आधा अधूरा सा सही इश्क़ ही है !
eshaq, pyar ye bahut sunder shabd hain aur ye vahi janta hain jo ese pahchanta hain
shukriya ..ahsaas ko smjhne ke liye !!