तुम थे तो कुछ लिख लेता था,
तुम फिर आते तो एक नज्म होती !
इस शहर से उस शहर जाने में,
तुम भूल आये वो पौधा ..
हर सुबह तुझसे मिलके जो जी लेते थे फिर जिंदगी,
इतने दिन सींच के क्यों तुमने मुँह मोड़ लिया,
धीरे धीरे पत्तियां पिली कुछ गिरती,
जैसे कोई बिखरता सा जा रहा रिश्ता,
न तुमने कुछ बोला .. और न उसने उम्मीद रखी,
अब चुप सा ही हो गया हूँ ..
जैसे वो गमला .. बंजर मिट्टियां उसमें,
और टहनियाँ जैसे .. एक ठूँठ सा खड़ा निष्प्राण सख्स !
क्या होता कुछ बूंदें तुम सींच देते,
अब बस .. ना देखना निकलकर फिर,
बेजार से गमलें में कुछ भी पड़ा नहीं है,
सूखे रिश्तें में अब कुछ भी बचा नहीं है !
#SK
सुंदर लेखन ।
धन्यवाद सर ।।
क्या होता कुछ बूंदें तुम सींच देते,
अब बस .. ना देखना निकलकर फिर,
बेजार से गमलें में कुछ भी पड़ा नहीं है,
सूखे रिश्तें में अब कुछ भी बचा नहीं है !
बहुत ही सुन्दर