खुले आसमाँ को देख,
आज उसकी चाहत थी,
टूटे कोई तारा फिर …
वो मांगे बैठे कुछ दुआयें !
शिकायत नहीं किसी से है कोई,
फकत खुद के फैसले, खुद से बातें..
खुद के ही सवाल है ..इर्द गिर्द पसरे!
ना कुछ जवाब देते, ना कुछ बयाँ करते;
जाने भी नहीं देता ये किसी ओर,
ये मन जैसे टटोल रहा, या जोड़ रहा कितने शब्दों को,
जो कहना है इसको उस पल, जब इस राहगीर का कोई बसेरा ना होगा;
चलना उसे उस दिन भी है .. नातों के खेल में उलझा हुआ है मन !
अब कुछ भी बचपना सा नहीं है,
जो कुछ माँगे या रूठे किसी कोने में जाके,
इस रात में भी काफी चकाचौंध है सब दिख जाने को !
उस जहाँ में सुनता जाता तेरी हँसी, और खिले से चेहरे,
कदमों को में तो यूँ ही गवां चूका उस और जाने की !
क्या हुआ जो फिर एक बात से सन्नाटा सा हुआ,
ये रात भी तो खूब साथ देता है अक्सर मेरा !!
In Night & Pen : – SK