क्योँ अलग विजाती से बैठे,
आँगन के उस पार अकेले,
ढोल नगारे कानों से टकरा कर,
वहीँ निस्तब्ध से हो चले,
गुमसुम से बस तकते उस भीड़ को,
हिस्सा जो नहीं उस उत्सव का मैं !
मैं जानती रीती रिवाजों से बने,
इन कोरे चित्रों को, रंग थे जिनमे अनेकों,
बस वक्त के हाथों से फिसल गयी लाल स्याही,
अब अँधेरा अँधेरा ही है हर तरफ,
होती जब सुबह ये रंगहीन क्योँ है सबकुछ,
यादों को टटोलते..झुंझलाते मन को,
हर तरफ बहलाती चौकठों को करती आर पार !
जैसे रुक गया हो जीवन चक्र मेरा,
सरसराते पुराने पत्ते ढेर से बिखरे,
कह रहे खामोश हो के, गया बसंत,
ना लौट के आने को फिर …
डाल टहनी सब खंडर !
हाथ फीके, गहने छुटे,
यादें अब मेरे नीर पोछे,
आँखे धुँधली कदम लरखराई,
बस वक्त के हाथों से फिसल गयी लाल स्याही !