लाल स्याही … A Treasure !
क्योँ अलग विजाती से बैठे,आँगन के उस पार अकेले,ढोल नगारे कानों से टकरा कर,वहीँ निस्तब्ध से हो चले,गुमसुम से बस तकते उस भीड़ को,हिस्सा जो नहीं उस उत्सव का मैं …
लाल स्याही … A Treasure ! Read MoreThe Life Writer & Insane Poet
क्योँ अलग विजाती से बैठे,आँगन के उस पार अकेले,ढोल नगारे कानों से टकरा कर,वहीँ निस्तब्ध से हो चले,गुमसुम से बस तकते उस भीड़ को,हिस्सा जो नहीं उस उत्सव का मैं …
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