रात .. बात नही बस सुर्ख काले अंधेरों और दो चार दमकती चाँद तारों की…
रात .. बात नही अकेली अँधेरी गलियों और सुनसान सड़कों से गुजर जाने की ..
रात .. हर रोज एक कोशिश होती, किसी की इसे जगमगाने की !
रात .. एक दर्द बिछड़ते सपने को, खोने की कश्मशाने सी !
रात .. हर रोज एक सवाल अंधेरों में, मन के भटक जाने की !
रात .. मायूसी किसी की ख़ामोशी से, अपना बन आस लगाने की !
रात .. एक हार और जख्मों को, नींद के आगोश में समाने की !
रात .. कुछ यादों और बातों में, जी भरके बस मुस्कुराने की !
रात .. दूर बजती कहीं धुन को समेटे, खुद होठों पर गुनगुनाने की !
रात .. रोते अनजाने बचपन की और, उस माँ के फिर बहलाने की !
रात .. कभी अकेले मायूसी में चुपचुप, कुछ बातों पर रो जाने की !
रात .. नींद कहाँ बस करवट लेते, अगले दिन की रोटी जुटाने की !
रात ..नींद कहाँ इन बातों में, जगते है सपनों की नाव चलाने में !
रात ..चैन कहाँ अब इन आँखों में,
बीती विभावरी अपनी भी किसी की यादों को शब्द बनाने में !
ये रात की बात : सुजीत