कैसे सावन आये तुम बिन गहने !
छितिज धरा सब धुल उराये,
नभ के बदल बन गये पराये,
उमड़ घुमड़ तुम आते ऐसे !
कसक मन की भी जाती जैसे,
जग चर की तुम तृष्णा मिटाते,
सूखे नयनों में आके नीर गिराते,
पर आये सावन बिन तुम गहने !
कोई जैसे चुप चुप से लगे रहने ..!
बेकल मन, सुने सपने …
बरसों सावन अब मेरे अँगने !
सुजीत भारद्वाज