पलायन क्यों …
साढ़े साती सुबह, अलसाती कम्बल,
कोई गीत की धुन टकराएँ ऐसे..
तन से मन को वहाँ खीच ले गए जैसे,
है ये कौन सी, व्यथा या झूठा दम्भ,
तिल तिल घिसते तन और पल पल रोता मन !
है मेरी माटी ऐसी, जो दो जून का निवाला ना दे सके ?
सूख गए गाँव के वो कूप, जहाँ प्यास ही नही मिटती !
यहाँ का साथ जँचता नही, नाता वहाँ का टूटता नहीं !
ये दो पल की बात तुझसे माँ, अब कुछ भी छुपता नही !
सोचे थे बनते बाबूजी की लाठी, दवाई बन बैठे !
मन क्यों मेरा पाषाण, हम तो पलायन के बागी बन बैठे !
में और मेरी सोच हो गयी संगणक सी,
पीपल और बरगद भी झाड़ी बन बैठे !
किसने तोड़ा ये नाता, हम राहों के राही,
अब खुद के घर के सिपाही बन बैठे !
ये कैसी शिक्षा..गले में लटकाये तमगा,
झुके नजर हर इज्जत की दुहाई कर बैठे !
ना खुला आसमाँ.. ना रात चौपाल पुरानी,
हम हवाओं के रुख से भी बेवफाई कर बैठे !
अपना घर, अपना माटी, वो पनघट सुना !
कब लौटू ना जाने, लगे बस जग सुना ..
और पूछे ये पलायन क्यों ??
[शब्दों का हर फेर, पर कविता हर रंग समेटे रहते,
आज हम देश विदेश अपनी माटी, परिजनों से दूर,
किस कोरे सुख की अभिलाषा में भागे फिर रहे,
ना दिवाली ना होली आती,
ये ऊँची तालीम और ऊँचे तमगे हमारे पल पल आत्मसम्मान को झुकाती..
और मन में सवाल उठती है .. पलायन क्यों ?]
~ सुजीत भारद्वाज
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