वो कलह की दास्तान कहते रहे !
और कोलाहल में अनसुना करते सभी !
बातें फेहरिस्त लंबी हुई इतनी,
जेहन में कुछ समाते ही नही सभी !
कोई मानता ही नही कितनी बंजर है दरख्ते,
पत्थरों के बीच कुछ तलाशते रहे सभी !
अभी अभी छाया जो नशा बिखरने का,
रूबरू हो कर भी उसे नकारते रहे सभी !
बेबाक होके कहता रहा, नहीं है ये अब वो दामन,
माना नही हँस कर हाथ थमाते गए सभी !
रात सिमटी रही अपने दायरे में कहीं,
और खुली आँखों से बिताते रहे सभी !
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