अब नींद झपकियों से परे हो रहा था,
आँखों में आकुलता सी छा रही थी,
बोरी सी भर के जिंदगी को ले चली,
फरॉटा गाड़ी सांय सांय करते हुए !
सड़क काली, आसमान भी डरावना सा,
चाक चौबंद मुस्कुराते, दुधिया बल्बों के खंभे !
सड़के जैसे जाल थी, एक दूसरे के ऊपर लिपटे !
और उनपर बनाये गए अवरोध रह रह के,
क्षणिक उन्घाइयों को तोड़ते हुए जा रहे !
रात के पहरों की गिनती कुछ शेष थी,
फिर गोदामनुमो कमरों की खाट पर,
निकलती है जिंदगी बोरियों से बाहर,
जहाँ अन्न के दानो को बिखेरा जाता हर तरफ,
और पानी के फव्वारे से बुझा दी जाती तृष्णा !
फिर कुछ पल की ख़ामोशी स्तब्ध रात की बात,
नींदे आगोश में ले लेती थोरी जिंदगी,
रात मीठी मुस्कान में चुपचाप , धीमी सी कहती,
बोरियों में भर वापस जिंदगी को ,
वो फरॉटा गाड़ी धुएँ उड़ाती आती होगी ! !
Random Thoughts :: (महानगर की रातें – व्याकुलता, अनवरत भागदौर का पर्याय )
Lucky
5 thoughts on “इक रात की बात !”
यशवन्त माथुर (Yashwant Mathur)
(September 26, 2011 - 4:33 am)कल 27/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
Rajesh Kumari
(September 27, 2011 - 7:56 am)bahut khoobsurat rachna hai bhaavnaon ki abhivyakti achcha laga pahli bar aapke blog par aakar silsila ab chalta rahega.jud rahi hoon aapke blog se.apne blog par bhi aamantrit kar rahi hoon.
रेखा
(September 27, 2011 - 10:29 am)बेहतरीन अभिव्यक्ति …
श्रीप्रकाश डिमरी /Sriprakash Dimri
(September 28, 2011 - 8:02 am)अति भावपूर्ण ह्रदय स्पर्शी अभिव्यक्ति …
NISHA MAHARANA
(September 29, 2011 - 5:01 am)बहुत सुन्दर भाव।
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