आहटों पर ऐतबार नहीं हमें,
ये शहर इस कदर वक़्त का मारा है,
मुलाकात की बस आरजू दिल में रह जाती है,
ये मुकम्मल ना होती कभी !
कोशिश की अजनबी न होते तुम,
वो पुराना तालुक और मुक्कमल हो जाता,
कब तक याद दिलाते वो पुराना रिश्ता,
जब छुट ही गया पीछे मैं कहीं ।
यूँ तो भीड़ में कई अजनबी शख्स मिलते,
हमने बमुश्किल पूछा था कब मिलोगे,
दिन और तारीख तय नहीं की थी,
मालूम था इस भीड़ में यूँ ही कहाँ मिलता कोई,
गलियाँ भी इस शहर में कम होती है कभी ।
बमुश्किल दो चार कदम चल पाता,
अब वो शब्दों का कारवाँ,
क्या ताउम्र हम निभायेगें,
हर तलक जो गुनाहगार हो जाता ।
तुम कहते अधूरी आरजू की ये बिना,
ये जिंदगी भी तो पूरी नहीं !!
आहटों पर ऐतबार नहीं हमें,
ये शहर इस कदर वक़्त का मारा है !!
Poetry by SK
Photo Credit :
Alone in the city by Tatyana Tomsickova