शब्द जब रंग मंच पर उतरे !
अपने अपने किरदार को खेले !
में खरा वहाँ मुसकाता रहा,
हर उलझन को सुलझाता रहा !
ये आहट किस और से आती है !
मंजिल ना नजर अब आती है,
बस रस्ते पर ले जाती है !
इच्छाओं की झोली में जीता,
इस बार भी ये बसंत यूँ बीता !
निर्जन पथ पर, कभी जो सोता !
जब ..!
रात अनंत बन जाती है ..
इस जीवन को जीवंत बनाने ..
एक सुबह फिर आस जगाती है !
– : सुजीत भारद्वाज