थोड़ा लब्जों को ढील दो ;
आके मुझसे वो बातें कर ले ;
तेरे कहने पर ही वो आयेंगे ;
जाने तुम आँखें दिखाते होगे;
किसी पराये के तरह वो रहते है ;
सामने बस घंटों देखा करता,
न बोलते न सुनते वो कुछ,
लब्जों को भी तुमने सीखा दिया,
जाने कैसे अपना सा बना दिया तुमने,
सूखे से कंठों से होठों से,
कोई स्वर ही नहीं फूटा है,
फिर दो लब्ज लौटते तो,
मैं कुछ तो बातें करता उनसे,
कह देता मैं वो सब कुछ,
जो दफ़्न सा है एक राज की तरह,
टूट ही जाती लम्बी सी ख़ामोशी,
जो तुम थोड़ा लब्जों को ढील देते !
Poetry : Sujit Kumar