तेरा जाना मेरे शब्दों को कभी भी रास नहीं आया ;
मुक़्क़मल कविता बनने से पहले वो बगावत कर बैठते !
बहुत ही कम वक़्त का साथ दिया तुमने ;
मैंने सोच कर रखे थे कई किस्से तुझसे कहने को !
मैं लिख कर नहीं जता सकता हर दर्द को,
होता कोई चित्रकार तो कैनवास पर दो आँसू के छीटें उड़ा देता !
जब उलझ उलझ कर सब बातें रह गयी,
कोई तो सुलझा लेता; न सुलझाई गिरह न तुमने न हमने !
तेरे जाने की आहटें थम गयी वहीँ,
‘वो गली वो वक़्त वो मायूसी’ आखिरी मुक़्क़मल नज्म थी शायद !
खफा के हो बैठे है वो भी हम भी,
फेर के बैठे चेहरे से हँसी भी नहीं झलकती अब तो !
तेरे यादों के कुछ पुर्जे अब भी है जहन में बसे,
वो मिट जाता तो सुकून सा मिलता !
#SK