कोई गुल्लक नहीं ;
बिखेर देना सिक्के ;
ऐसे किसी जगह ;
किसी खिलौने के ख्वाबों के खातिर ;
तोड़ देना मिट्टी के लाल गुल्लक को ;
बचपन में ।
कोई मेहमान हाथ में रख देता था एक रूपये का सिक्का ; और दौड़ के गुल्लक में डाल के ; हाथों में उठा महसूस करता था ,
कितना भारी हुआ है । फिर एक बार हिला के खनखनाहट सुन खुश हो जाता था बचपन । अब सिक्के यूँ ही बिखरें है जैसे किसी सपनों की कीमत ये ना अदा कर पायेंगे ।। #sk