कुछ यूँ हुआ …
हाथों में गुब्बारे थे रंगीले सबके,
और कुछ छुपा रखा था खंजर जैसा !
कदम जब जब बढ़े थे हमारे ,
राह क्यों बन गया था गहरे कुँए जैसा ?
कुछ था ऐसा …
महकते ख्वाब में सज गयी थी कुछ हँसी सी,
जैसे टूटे नशे से भाग निकली भीड़ में परछाई सी,
चुप से थे भीड़ में हर एक से हजारों चेहरे !
कशमकश मन की …
हर राह है तेरी, हर रात अब तेरी,
दर्द से तरप जा, या जल जा हर आग में तू,
ये शोर तुने खुद उठाया है, ये आग तुने खुद लगाया है,
चल राह अपनी इस तरह …
बटोर ले हर पत्ते बेरुखी के, जला ले हर बात उसमे अपनी,
झाकना नही उस कुएँ में दुबारा, ये आवाजे बहुत डरावनी है,
फिर मत देखना पीछे मुड़ के कभी, हर तरफ इंसान ही इंसान नजर आएंगे !
रचना : सुजीत
बहुत ही बेहतरीन लिखा है लक्की…