सब बिखरा सा ..
क्या क्या समेटू इन दो हाथों मे ?
वो परेशां थे..
पर उनकी बड़ी ही चाहत थी,हमे आजमाने की !
खामोश हूँ खरा ..
देख रहा लहरों के उछालों को !
अपने हाथों को दूर ही रखो ..
ठोकरों से गिर कर खुद ही उठूँगा मैं , और तब देखेगा ये आसमां !
रचना : सुजीत कुमार लक्की
बहुत खूब!
bahut khub sundar ..pasand aayi aapki rachna
बहुत सुन्दर शब्द चुने आपने कविताओं के लिए..