वो कहते थे ये शहर है, ऐसा !
करीब से देखिये शायद जान जायेगें !
कब तक यूँ मुसाफिर रहते !
एक पराव एक आशियाँ तलाशा !
अब इस कदर बस गयी जेहन में,
हर गुमनाम सी गलियाँ यहाँ की,
मारे मारे फिरने में दिल्लगी सी हो गयी !
अनजाने चेहरों से हो रूबरू रोज,
एकबार देखता एकटक हर आकृतियों को,
कोई पुरानी खोयी पहचान सी लगती !
फिर रफ़्तार इस सड़क की रिश्ते भी जोड़ने कहाँ देती,
उमड़े भावों को पीछे छोड़ते, सब भीड़ सा बन जाते !
अब कोई चाह नही लौट जाने का, इन राहों से,
अपना सा हो ना हो, कुछ प्यार तो पनपा ही दिया,
इन गलियों में, सपने पाले और तोड़े अनेकों !
इन राहों में ही तो हुनर भी सीखा गिरकर संभल जाने का !
मेरे संग बातें बाटी यहाँ की आसमानों ने,
रातों ने सुने मेरे सारे किस्से नींद से जुदा हो के !
अब इन ऊँची इमारतों में वो बात नही दिख जाती,
हौसले बुलंद जब हुये, ये आडंबर झुकती नजर आयी,
वो डराती रौशनी अब धीमी पड़ती धुँधली हो आयी !
अब हर सुबह और शाम, खबर नही कब आई ना आई !
अब जान गए इस शहर को आहिस्ता तो सोचते,
रूबरू जो कहीं हुए तो, हर अक्स फिर टूटेगा !
किसी भीड़ में ना दिख जाना, शायद हाल बयाँ अब ना होगा !
:: – सुजीत